भारतीय आईटी उद्योग का कठिन सच: क्या दोष एआई, टैरिफ्स या कुछ और का है?
8 मई 2025 –भारत के सबसे प्रतिष्ठित आर्थिक क्षेत्र के लिए यह एक कठिन दौर साबित हो रहा है। जैसे ही शेयरों के दाम गिरते हैं और नौकरियों में कटौती की खबरें आती हैं, लोग इसकी वजह कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), अमेरिकी व्यापार नीतियों या वैश्विक आर्थिक अनिश्चितताओं को बता रहे हैं। लेकिन सच्चाई इससे कहीं ज्यादा गहरी है। भारत की आईटी दिग्गज कंपनियों के हालिया नतीजे इस बात का संकेत हैं कि एक लंबे समय से देश की आर्थिक धरोहर रहा यह क्षेत्र अब एक बड़े बदलाव के दौर से गुजर रहा है।
आइए आँकड़ों से शुरू करते हैं। टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (TCS) ने पिछले चार वर्षों में अपनी सबसे धीमी राजस्व वृद्धि दर्ज की है। इंफोसिस के मुनाफे में 12% की गिरावट आई है। विप्रो ने महामारी के बाद अपने सबसे कमजोर राजस्व की सूचना दी है। ये आंकड़े अकेले नहीं हैं; ये पूरे उद्योग में छिपे गहरे संकट को दर्शा रहे हैं।
भर्ती पर रोक और वेतन में देरी
इसका असर जमीन पर साफ नजर आ रहा है। वेतन वृद्धि पर रोक लगाई गई है। प्रमोशन में देरी हो रही है। खासकर फ्रेशर्स के लिए भर्ती लगभग रुक गई है। TCS ने वेतन पुनरीक्षण को टाल दिया है। इंफोसिस ने अगले वित्तीय वर्ष (FY26) के लिए 0-3% वृद्धि की मामूली संभावना जताई है। विप्रो ने भी नए कर्मचारियों की जॉइनिंग में देरी की है, जिससे हजारों नए स्नातक अनिश्चितता में फंस गए हैं।
एक ऐसे उद्योग के लिए, जो कभी भारत में बड़े पैमाने पर रोजगार देने वाला क्षेत्र था, ये संकेत चिंताजनक हैं। भारतीय आईटी सेक्टर में करीब 50 लाख से ज्यादा लोग काम करते हैं और यह देश के GDP में लगभग 7.5% योगदान देता है। ऐसे में किसी भी दीर्घकालीन मंदी का असर पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य: एआई, टैरिफ और रद्द होते कॉन्ट्रैक्ट्स
वैश्विक स्तर पर तकनीकी परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। भारत के सबसे बड़े आईटी बाजार अमेरिका में हाल ही में $5.1 बिलियन (लगभग 42 हजार करोड़ रुपये) के आईटी कॉन्ट्रैक्ट्स रद्द या स्थगित कर दिए गए हैं। बड़ी कंपनियों ने डिजिटल ट्रांसफॉर्मेशन प्रोजेक्ट्स पर फिलहाल रोक लगा दी है, जब तक आर्थिक और तकनीकी स्थितियां स्पष्ट नहीं हो जातीं।
इसी के साथ अमेरिका की नीतियां भी भारतीय आईटी को दबाव में डाल रही हैं। पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा चीन और अन्य विदेशी टेक उत्पादों पर लगाए गए टैरिफ्स ने व्यापार में अनिश्चितता बढ़ा दी, जिससे अमेरिकी कंपनियां बड़े पैमाने पर आउटसोर्सिंग से हिचकने लगीं। कुछ को उम्मीद थी कि अमेरिका-चीन तनाव से भारत को फायदा होगा, लेकिन सच्चाई ज्यादा जटिल निकली—क्लाइंट्स सतर्क हैं, बजट कम हो रहे हैं और नियामकीय चुनौतियाँ बढ़ रही हैं।
उधर, वैश्विक टेक सेक्टर भी अपने अंदर एक सुधार (correction) से गुजर रहा है। 2025 के पहले कुछ महीनों में ही दुनियाभर में 23,000 से ज्यादा टेक नौकरियाँ खत्म हो चुकी हैं। गूगल, माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों की छंटनियों ने यह साफ कर दिया है कि ऑटोमेशन और एआई टूल्स तेजी से मानव श्रम की जगह ले रहे हैं।
भारतीय आईटी कंपनियों के लिए, जो अब तक लार्ज टीम्स के जरिए लीगेसी सिस्टम्स को मैनेज कर अपनी पहचान बनाती थीं, यह बदलाव अस्तित्व का संकट बनकर उभरा है। अब क्लाइंट्स को सैकड़ों इंजीनियरों की जरूरत नहीं, वे एआई-आधारित, ऑटोमेटेड, स्मार्ट सॉल्यूशंस चाहते हैं—और यही भारतीय आईटी के पारंपरिक मॉडल को चुनौती दे रहा है।
सिर्फ चक्रीय मंदी नहीं, ढांचागत समस्या
ज़ोहो के संस्थापक श्रीधर वेंबू उन गिने-चुने नेताओं में हैं जिन्होंने इस समस्या की जड़ पर खुलकर बात की है। उनके अनुसार, यह मंदी अस्थायी नहीं है बल्कि ढांचागत (structural) है। वे कहते हैं, “भारतीय आईटी उद्योग कई वर्षों से एक बबल पर सवार था। हम बहुत ज्यादा आत्ममुग्ध हो गए, खुद पर केंद्रित हो गए और ऐसी सेवाएं देने लगे जिनकी वास्तविक वैल्यू कम थी।“
उनकी आलोचना और गहरी है। उनका मानना है कि आईटी बूम ने भारत के सबसे होशियार दिमागों को उन क्षेत्रों से दूर कर दिया जहाँ उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी—जैसे कि उद्योग, इंफ्रास्ट्रक्चर, प्रोडक्ट इनोवेशन। “हमने फैक्ट्रियां, सड़कें, या नए उत्पाद बनाने के बजाय कोडिंग सेवाओं में अपनी प्रतिभा झोंक दी।”
उनकी चेतावनी साफ है: “असल समस्या एआई या अमेरिका नहीं है, असली समस्या आईने में है।” उनका आह्वान सिर्फ कॉस्ट-कटिंग या अपस्किलिंग तक सीमित नहीं है; वे पूरे उद्योग के उद्देश्य के पुनर्परिभाषा की मांग कर रहे हैं।
एक मॉडल जो अप्रासंगिक हो रहा है
जब भारतीय आईटी अपने चरम पर था, तब आउटसोर्सिंग, बीपीओ और आईटी-इनेबल्ड सर्विसेज इसकी पहचान थे। लेकिन 2000 के दशक का जो फॉर्मूला था, वही अब 2030 के दशक में बाधा बन रहा है। आज के वैश्विक ग्राहक केवल ऐप्लिकेशन सपोर्ट या मेंटेनेंस नहीं चाहते; वे चाहते हैं क्लाउड-नेटिव प्लेटफॉर्म, एआई-ड्रिवन इनसाइट्स, साइबरसिक्योरिटी सॉल्यूशंस और खुद के प्रोडक्ट्स।
स्टार्टअप्स और नई कंपनियां पारंपरिक सर्विस मॉडल्स को चुनौती दे रही हैं, कम लोगों के साथ ऑटोमेशन आधारित समाधान दे रही हैं जो तेजी से और सस्ते में काम कर रहे हैं। बड़ी परियोजनाएं रद्द या टाल दी जा रही हैं क्योंकि क्लाइंट्स नए टेक्नोलॉजी बदलावों के बीच रुककर देखना चाहते हैं।
अब डर यह है कि क्या भारतीय आईटी अपनी प्रासंगिकता खो रहा है?
अगर हाँ, तो इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं। यदि यह क्षेत्र उच्च-मूल्य वाली सेवाओं, प्रोडक्ट इनोवेशन और बौद्धिक संपदा पर ध्यान नहीं देता, तो भारतीय आईटी आने वाले वर्षों में एक सस्ते बैक-ऑफिस प्रोवाइडर तक सीमित होकर रह सकता है।
आगे की राह: पुनर्निर्माण या पतन
तो आगे क्या? कंपनियां एफिशिएंसी, इन्वोवेशन, स्ट्रैटेजिक वर्कफोर्स प्लानिंग, और डिजिटल अपस्किलिंग की बातें कर रही हैं। लेकिन अंदरखाने यह माना जा रहा है कि जितनी गहराई से बदलाव चाहिए, वह सिर्फ नारों से नहीं आएगा।
इस उद्योग को सर्विस से सॉल्यूशंस की ओर, बॉडीज से ब्रेन्स की ओर, मेंटेनेंस से मेकिंग की ओर जाना होगा। इसका मतलब होगा आरएंडडी, प्रोडक्ट इनोवेशन, और आईपी डेवलपमेंट में निवेश। और सबसे जरूरी, एक नई मानसिकता—जहाँ हम दूसरों के आइडिया को पूरा करने की बजाय खुद के आइडिया क्रिएट करें।
आसान रास्ता नहीं है। मार्जिन दबाव में रहेंगे। ग्रोथ पाना मुश्किल होगा। टैलेंट मॉडल को बदलना पड़ेगा। और सबसे बड़ी जरूरत होगी दृष्टि और साहस की, कि जाने-पहचाने आउटसोर्सिंग मॉडल से आगे बढ़ा जाए।
जैसे-जैसे वैश्विक टेक इकोसिस्टम एआई और भू-राजनीतिक बदलावों के बीच खुद को फिर से परिभाषित कर रहा है, भारतीय आईटी भी एक चौराहे पर खड़ा है। एआई, टैरिफ या अस्थायी मंदी को दोष देना आसान है। लेकिन जैसा कि वेंबू कहते हैं—असल सच आईने में छिपा है।
आने वाले दशक में भारतीय आईटी के लिए सिर्फ लचीलापन (resilience) काफी नहीं होगा। उसे पुनर्निर्माण (reinvention) की जरूरत है।