“नहीं मिस्टर ट्रंप, भारत को जंग रोकने के लिए आपकी ज़रूरत नहीं थी”
नई दिल्ली,16 मई । डोनाल्ड ट्रंप एक बार फिर सुर्खियों में हैं — और इस बार भी वजह वही पुरानी है: किसी और की मेहनत का श्रेय खुद को देना। इस बार उन्होंने दावा कर डाला कि भारत और पाकिस्तान के बीच 10 मई को हुआ युद्धविराम उनकी “मदद” से ही संभव हुआ। उन्होंने यहां तक कह डाला कि उन्होंने “न्यूक्लियर वॉर” यानी परमाणु युद्ध तक को टाल दिया। लेकिन भारत का जवाब था साफ, सटीक और दो टूक: “नहीं, आपने कुछ नहीं किया।”
कतर में अमेरिकी सैनिकों को संबोधित करते हुए ट्रंप ने कहा, “मैं नहीं कहना चाहता कि मैंने किया… लेकिन मैं पक्का जानता हूं कि मेरी मदद से ही हालात काबू में आए।” मगर सच्चाई इससे कोसों दूर है। भारत के विदेश मंत्रालय ने एक दिन पहले ही ट्रंप के दावों का छह बिंदुओं में खंडन करते हुए साफ कर दिया कि इस युद्धविराम में अमेरिका की कोई भूमिका नहीं थी। भारत ने खुद, स्वतंत्र रूप से, कूटनीतिक और सैन्य संतुलन से स्थिति को संभाला।
ट्रंप का दावा है कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान से कहा, “चलो व्यापार करें, युद्ध नहीं।” लेकिन भारत सरकार ने दो टूक कहा है कि ऐसा कोई संवाद नहीं हुआ। भारत और अमेरिका के बीच जो व्यापारिक वार्ताएं चल रही हैं, उनका पाकिस्तान या सीमा पर हुए ऑपरेशन ‘सिंदूर’ से कोई लेना-देना नहीं है।
यह पहला मौका नहीं है जब ट्रंप ने खुद को “ग्लोबल डीलमेकर” साबित करने की कोशिश की हो। इससे पहले भी तीन बार वो भारत-पाक मसलों पर बेबुनियाद बयान दे चुके हैं। इस बार उनके सहयोगी भी इस मुहिम में जुट गए हैं। व्हाइट हाउस की प्रवक्ता कैरोलाइन लेविट ने तो एक सर्वर के हवाले से कहा कि “ट्रंप ने न्यूक्लियर वॉर टाल दिया”— और यही ‘सबूत’ सोशल मीडिया पर पोस्ट भी कर दिया।
भारत की ओर से लगातार यह कहा गया है कि:
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कोई परमाणु युद्ध की आशंका नहीं थी।
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कोई तीसरा पक्ष शामिल नहीं था।
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और कोई गुप्त “ट्रेड-फॉर-पीस” डील नहीं हुई।
भारत की नीति बिल्कुल स्पष्ट है — पाकिस्तान से कोई भी बातचीत तभी होगी जब वह आतंकवाद के ढांचे को ध्वस्त करेगा और भारत के कब्जे वाले क्षेत्रों को वापस करेगा। ट्रंप के बयानों का यहां कोई स्थान नहीं।
पूर्व राजनयिक के. पी. फैबियन ने भी ANI से बातचीत में कहा, “अमेरिका ने कोई मध्यस्थता नहीं की। संभव है उन्होंने पाकिस्तान पर कुछ दबाव डाला हो, लेकिन भारत पर कोई प्रभाव नहीं था।”
अब सवाल यह नहीं है कि ट्रंप सच बोल रहे हैं या नहीं — क्योंकि वे नहीं बोल रहे। असली सवाल यह है: ट्रंप बार-बार इस झूठ को क्यों दोहरा रहे हैं?
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क्या ये वैश्विक मंच पर खुद को प्रासंगिक बनाए रखने की एक नाकाम कोशिश है?
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या अमेरिका में व्यापार वार्ताओं की सुस्त रफ्तार और विदेशी नीति की विफलताओं से ध्यान हटाने की चाल?
दक्षिण एशिया की भू-राजनीतिक जटिलताएं किसी तमाशेबाज़ की तालियाँ नहीं, बल्कि गंभीर कूटनीति की माँग करती हैं। ट्रंप भले ही खुद को ‘शांति के देवता’ कहें, लेकिन भारत अब ऐसे सस्ते नाटकों का हिस्सा नहीं बनने वाला।