ममता बनर्जी की वक़्फ़ राजनीति: संविधान और सुशासन के लिए खतरा

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6 मई पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हाल ही में यह ऐलान किया कि राज्य में वक़्फ़ संशोधन अधिनियम लागू करने का “कोई सवाल ही नहीं उठता।” उनका यह बयान न सिर्फ़ संवैधानिक व्यवस्था की अनदेखी है, बल्कि देश की एकता और सुशासन के लिए भी गंभीर खतरा पैदा करता है। ममता बनर्जी की इस घोषणा के पीछे स्पष्ट रूप से तुष्टिकरण और वोटबैंक की राजनीति झलकती है, जो लंबे समय से उनकी राजनीति की पहचान बन चुकी है। वक़्फ़ संशोधन अधिनियम का उद्देश्य देशभर में वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन में पारदर्शिता, जवाबदेही और एकरूपता लाना है। दशकों से वक़्फ़ बोर्डों के कामकाज पर भ्रष्टाचार, अवैध कब्ज़ों और गड़बड़ियों के आरोप लगते रहे हैं। यह संशोधन उन कमियों को दूर करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। लेकिन ममता बनर्जी इस कानून को लागू न करने की घोषणा कर दरअसल एक भ्रष्ट और अपारदर्शी व्यवस्था को बचाने का काम कर रही हैं, और यह संकेत दे रही हैं कि पश्चिम बंगाल संविधान और संसद के बनाए कानूनों से ऊपर है।

ममता बनर्जी की यह राजनीति कोई नई बात नहीं है। उन्होंने अपने कार्यकाल में बार-बार अल्पसंख्यक तुष्टिकरण को प्राथमिकता दी है, चाहे वह इमामों और मुअज्ज़िनों को मासिक भत्ता देना हो, अवैध रोहिंग्या बस्तियों पर आंख मूंद लेना हो या नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के खिलाफ हिंसक प्रदर्शनों को परोक्ष समर्थन देना हो। वक़्फ़ कानून के मुद्दे पर उनकी हठधर्मिता इसी लंबे सिलसिले का हिस्सा है, जहां संवैधानिक दायित्वों के बजाय वोटबैंक की राजनीति निर्णायक भूमिका निभाती है।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या किसी मुख्यमंत्री को यह अधिकार है कि वह तय करे कि संसद के किस कानून को मानना है और किसे नहीं? भारतीय संविधान स्पष्ट करता है कि संसद द्वारा बनाए गए कानूनों को लागू करना राज्यों की ज़िम्मेदारी है, खासकर जब वे समवर्ती सूची या संघ सूची के अंतर्गत आते हैं। ममता बनर्जी की यह नीति एक खतरनाक परंपरा की नींव रखती है, जिसमें राज्यों के मुख्यमंत्रियों को अपनी सुविधा और राजनीतिक लाभ के हिसाब से केंद्रीय कानूनों को ठुकराने की छूट मिल जाएगी। अगर दूसरे राज्यों में भी यही रवैया अपनाया जाने लगे, तो देश में कानून व्यवस्था की अराजकता फैल जाएगी।

ममता बनर्जी की इस नीति के नैतिक पहलू पर भी सवाल उठाना ज़रूरी है। पश्चिम बंगाल में पहले से ही वक़्फ़ संपत्तियों पर कब्ज़े और घोटालों को लेकर विवाद होते रहे हैं, जिनका सीधा असर गरीबों और ज़रूरतमंदों पर पड़ता है। वक़्फ़ की ज़मीनें मूलतः मस्जिदों, कब्रिस्तानों, मदरसों, अस्पतालों और अनाथालयों जैसे परोपकारी कार्यों के लिए होती हैं, लेकिन इनमें से कई पर अवैध कब्ज़ा या व्यावसायिक गतिविधियां चल रही हैं। सुधार की बजाय ममता बनर्जी इन गड़बड़ियों को ढकने का प्रयास कर रही हैं, जो अंततः उन्हीं समुदायों का नुकसान करेगा, जिनके नाम पर वे राजनीति कर रही हैं।

यह कहना कि वक़्फ़ कानून में संशोधन बीजेपी की ‘सांप्रदायिक राजनीति’ का हिस्सा है, एक कमजोर और खोखला तर्क है। जब मंदिरों, गुरुद्वारों और चर्चों के प्रबंधन में पारदर्शिता और सरकारी निगरानी को सही माना जाता है, तो वक़्फ़ संपत्तियों पर ऐसा क्यों नहीं हो सकता? सुप्रीम कोर्ट बार-बार धार्मिक संस्थानों में पारदर्शिता की ज़रूरत पर ज़ोर देता आया है। ममता बनर्जी की इस चयनात्मक नाराज़गी से उनके दोहरे मापदंड साफ़ झलकते हैं।

इसके अलावा, बंगाल की सामाजिक स्थिति को देखते हुए ममता बनर्जी का यह कदम बेहद गैर-जिम्मेदाराना है। बीते कुछ वर्षों में राज्य में कई बार सांप्रदायिक हिंसा देखी गई — चाहे वह बसीरहाट हो, हावड़ा हो या काकद्वीप। ऐसे संवेदनशील माहौल में, धार्मिक संपत्तियों के प्रबंधन को सुधारने के बजाय एक समुदाय विशेष के दबाव में उसे हाथ न लगाने का फैसला आग में घी डालने जैसा है।

ममता बनर्जी का यह रुख संघीय सहयोग की भावना को भी चोट पहुंचाता है। आज जब देश को बेरोज़गारी, आर्थिक अस्थिरता और पर्यावरणीय संकट जैसी गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, तब केंद्र और राज्यों को मिलकर काम करने की ज़रूरत है। ऐसे में वक़्फ़ कानून जैसे मुद्दों पर ज़िद पकड़ना न सिर्फ़ विकास के रास्ते में रोड़ा बनता है, बल्कि यह जनता के हितों को भी नुकसान पहुंचाता है।

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो ममता बनर्जी केंद्र सरकार पर ‘तानाशाही’ का आरोप लगाती हैं, वही अपनी सरकार में छात्रों, पत्रकारों और विपक्ष के नेताओं पर पुलिस की कठोरता दिखाने में पीछे नहीं रहतीं। एक तरफ़ वह वक़्फ़ कानून लागू करने से इनकार करती हैं, दूसरी ओर अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ़ कानून का दुरुपयोग करने से ज़रा भी नहीं हिचकतीं। यह उनके लोकतांत्रिक मुखौटे के पीछे की सच्चाई उजागर करता है।

संक्षेप में कहा जाए, तो ममता बनर्जी का वक़्फ़ संशोधन अधिनियम को न लागू करने का निर्णय संविधान, सुशासन और नैतिकता — तीनों के खिलाफ़ है। यह उनकी उस राजनीति का हिस्सा है, जो अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के सहारे सत्ता में बने रहने की कोशिश करती है, भले ही इसके लिए वे देश की एकता, कानून के शासन और पारदर्शिता को दांव पर लगा दें। बंगाल को आज ऐसे नेतृत्व की ज़रूरत है, जो संविधान का सम्मान करे, सभी वर्गों के हितों की रक्षा करे और राजनीतिक लाभ के लिए समाज को न बांटे। ममता बनर्जी का यह रवैया उनकी कमजोरी और राजनीतिक दिवालियापन का प्रतीक बनकर सामने आया है।

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