अरब में खरबों के सौदे… डोनाल्ड ट्रंप ‘शांतिदूत’ या मिडिल ईस्ट में भूचाल की नई बिसात?
नई दिल्ली,19 मई । डोनाल्ड ट्रंप एक बार फिर सुर्खियों में हैं – और इस बार वजह है अरब देशों के साथ हुए खरबों डॉलर के सौदे। हथियारों की डील, तेल समझौते, और डिप्लोमैटिक मीटिंग्स की आड़ में अब यह सवाल उठने लगा है:
क्या ट्रंप सचमुच मिडिल ईस्ट में शांति चाहते हैं या फिर एक बेहद शातिर राजनीतिक-आर्थिक गेम बिछाया जा रहा है?
हाल ही में ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिकी डेलिगेशन ने सऊदी अरब, यूएई और कतर जैसे देशों के साथ $400 अरब डॉलर से ज्यादा के सौदों पर हस्ताक्षर किए। इनमें शामिल हैं –
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हथियारों की खरीद-बिक्री,
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ऊर्जा परियोजनाएं,
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AI और टेक्नोलॉजी इन्वेस्टमेंट,
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और इन्फ्रास्ट्रक्चर सौदे।
“ये डील्स सिर्फ व्यापार नहीं, अमेरिका की नई विदेश नीति का चेहरा हैं,” – एक अमेरिकी अधिकारी
डोनाल्ड ट्रंप का दावा है कि वे मिडिल ईस्ट को स्थिरता और समृद्धि की ओर ले जाना चाहते हैं, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि ये डीलें शांति से ज़्यादा कूटनीतिक दबाव और सैन्य शक्ति के संतुलन का हिस्सा हैं।
“ट्रंप एक हाथ में हथियार थमा रहे हैं, और दूसरे में शांति का झंडा — असली इरादा क्या है?” – मिडिल ईस्ट पॉलिटिकल थिंक टैंक
ट्रंप की मध्य-पूर्व नीति हमेशा से ‘डील-मेकिंग’ पर आधारित रही है। चाहे वो इजराइल-अरब देशों के बीच अब्राहम अकॉर्ड्स हों या ईरान के खिलाफ कड़े आर्थिक प्रतिबंध, ट्रंप ने हमेशा शांति को रणनीति के आवरण में पेश किया है।
अब इन खरबों के सौदों को देखकर माना जा रहा है कि यह कोई सीधा व्यापारिक समझौता नहीं, बल्कि
ईरान को घेरने की तैयारी,
चीन के असर को काटने की रणनीति,
और तेल पर पकड़ मजबूत करने की चाल हो सकती है।
इतने बड़े पैमाने पर हथियार और निवेश अरब में झोंकने से क्षेत्रीय असंतुलन और सुरक्षा संकट गहरा सकता है। ईरान पहले ही इसे उकसावे की कार्रवाई बता चुका है। वहीं, यमन और सीरिया जैसे संकटग्रस्त क्षेत्रों में इससे आग और भड़क सकती है।
ट्रंप अपने ‘डील मेकर’ इमेज को शांति के पैगंबर की तरह पेश कर रहे हैं, लेकिन हकीकत यह है कि ये सौदे शांति नहीं, शक्ति की सौदेबाज़ी हैं। अमेरिका को अरब में अपनी भूराजनीतिक पकड़ चाहिए, और ट्रंप इसके लिए हर मोहरे को चालाकी से चला रहे हैं।
सवाल बड़ा है:
क्या अरब में खरबों की ये डील्स सचमुच स्थिरता और सहयोग लाएंगी?
या फिर एक और बार मिडिल ईस्ट को बना दिया गया है सुपरपावर की राजनीति का अखाड़ा?