IMF का आर्थिक सहयोग पाकिस्तान को ???? भारत के खिलाफ या हिंदुओं के खिलाफ युद्ध? क्या हिंदू इस लड़ाई में अकेले पड़ गए हैं?

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IMF द्वारा पाकिस्तान को 1 अरब डॉलर की मदद देने की खबर ने पूरी दुनिया में गुस्से की लहर पैदा कर दी। सोशल मीडिया पर गूंज उठी आवाज़—“IMF के हाथ खून से रंगे हैं।” यह गुस्सा सिर्फ एक आर्थिक फैसले पर नहीं था; यह उस गहरे अन्याय की भावना थी, जो भारत और खासकर हिंदुओं के दिल में बैठती जा रही है।

सोचिए, जब पाकिस्तान भारत के खिलाफ छद्म युद्ध (proxy war) लड़ रहा है, आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है, कश्मीर में निर्दोषों का खून बहा रहा है, तब दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक संस्थाएं उसे आर्थिक ऑक्सीजन दे रही हैं। IMF का ये पैसा क्या वाकई पाकिस्तान के गरीबों तक पहुँचेगा? या फिर वही पैसा आतंकवादी ठिकानों, हथियारों की खरीद और भारत विरोधी साजिशों के लिए इस्तेमाल होगा?

लेकिन असली सवाल इससे भी बड़ा है। क्या पाकिस्तान भारत के खिलाफ युद्ध लड़ रहा है, या फिर ये युद्ध हिंदुओं के खिलाफ है?

पाकिस्तान: एक धार्मिक राष्ट्रवाद पर आधारित देश

इस सवाल का जवाब हमें पाकिस्तान के निर्माण में ही मिलता है। पाकिस्तान का जन्म सिर्फ राजनीतिक कारणों से नहीं हुआ था, बल्कि दो राष्ट्र सिद्धांत (Two-Nation Theory) पर हुआ था—जिसका मूल विचार यह था कि हिंदू और मुस्लिम कभी एक साथ नहीं रह सकते। यह विचारधारा सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि एक गहरी धार्मिक और वैचारिक सोच पर आधारित थी।

1947 से लेकर आज तक, पाकिस्तान की नीति भारत को दुश्मन मानने की रही है। 1948, 1965, 1971, कारगिल युद्ध से लेकर उरी और पुलवामा जैसे आतंकवादी हमले तक, पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ हर मोर्चे पर जहर उगला है। लेकिन यह दुश्मनी सिर्फ एक देश के खिलाफ नहीं है—यह हिंदू बहुल भारत के खिलाफ है।

जब पाकिस्तान के आतंकी कश्मीर में मंदिरों पर हमला करते हैं, जब हिंदू तीर्थयात्रियों को निशाना बनाया जाता है, जब पाकिस्तान के नेता कश्मीर को “मुस्लिम उम्मा” की लड़ाई बताते हैं—तो यह साफ होता है कि यह लड़ाई सिर्फ ज़मीन के लिए नहीं, बल्कि हिंदू पहचान के खिलाफ है।

IMF की मदद: आतंकवाद को पोषित करने वाला कदम?

ऐसे समय में IMF का पाकिस्तान को फंड देना कई सवाल खड़े करता है। पाकिस्तान में सेना सिर्फ रक्षा तक सीमित नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था, जमीन, व्यापार और माफिया तंत्र पर भी काबिज है। IMF का पैसा वहां की सेना के हाथों में पहुँचने से कैसे रोका जाएगा? कौन गारंटी देगा कि यह फंड भारत विरोधी गतिविधियों में नहीं लगेगा?

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि IMF में योगदान देने वालों में भारत भी शामिल है। यानी भारत के पैसों से भारत के खिलाफ जहर फैलाने वाले देश को मदद दी जा रही है। अमेरिका, यूरोप, जापान—ये IMF के सबसे बड़े फंडर हैं। फिर भी किसी ने पाकिस्तान को दी जाने वाली मदद पर आपत्ति क्यों नहीं जताई?

शायद इसलिए कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में हिंदू दुनिया की कोई आवाज़ नहीं है। इस्लामी देशों का OIC (Organisation of Islamic Cooperation) है, पश्चिमी देशों के पास NATO और EU हैं। लेकिन हिंदू बहुल भारत के लिए कोई वैश्विक मंच नहीं जो उसकी चिंताओं को दुनिया के सामने रख सके।

क्या कोई हिंदू बहुल देश होता तो IMF ऐसा फैसला ले पाता? अगर कोई हिंदू राष्ट्र आतंकवाद फैलाता, तो क्या दुनिया ऐसे ही खामोश रहती?

क्या एक इस्लामी एकजुटता बन रही है?

यह मान लेना कि पाकिस्तान अकेला काम कर रहा है, एक भूल होगी। पिछले वर्षों में तुर्की, कतर और यहां तक कि सऊदी अरब के कुछ धड़े पाकिस्तान के कश्मीर मुद्दे पर समर्थन में आए हैं। जैसे-जैसे भारत-पाकिस्तान तनाव बढ़ेगा, यह खतरा और गहरा होता जाएगा कि यह लड़ाई दो देशों के बीच न रहकर एक वैश्विक इस्लामी एकजुटता बन जाए।

दुनिया भर के कट्टरपंथी संगठनों ने पहले से ही कश्मीर को मुस्लिम उत्पीड़न का मुद्दा बनाकर प्रचार करना शुरू कर दिया है। अगर युद्ध बढ़ा, तो क्या और इस्लामी देश पाकिस्तान के समर्थन में आ सकते हैं? क्या भारत को एक साथ कई मोर्चों पर लड़ाई लड़नी पड़ेगी—सिर्फ सैन्य मोर्चे पर नहीं, बल्कि कूटनीतिक और वैचारिक मोर्चे पर भी?

हिंदुओं की अकेली लड़ाई

यहीं पर असली चिंता शुरू होती है। इस लड़ाई के नीचे छिपा सच यह है कि हिंदू इस सभ्यतागत युद्ध को अकेले लड़ रहे हैं।

इस्लामी देशों के पास अपनी आवाज़ें हैं। पश्चिमी देशों के पास अपने गठबंधन हैं। लेकिन हिंदू पहचान के लिए कोई वैश्विक मंच नहीं है। भारत के अंदर भी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इस्लामिक आतंकवाद को धार्मिक आतंकवाद कहने से बचा जाता है। लेकिन पाकिस्तान खुलेआम इस्लामी झंडा लहराकर अपनी साजिशों को वैधता देता है।

यह असमानता खतरनाक है। इससे हिंदू वैश्विक विमर्श में अकेले पड़ते जा रहे हैं। अगर हिंदू पहचान को दुनिया में वैधता नहीं मिलेगी, तो हिंदू धीरे-धीरे वैचारिक रूप से अलग-थलग पड़ जाएंगे।

भारत और हिंदुओं को क्या करना चाहिए?

IMF का बेलआउट सिर्फ आर्थिक फैसला नहीं, बल्कि एक बड़ी संरचनात्मक समस्या का संकेत है। अगर अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं आतंक फैलाने वाले देशों को पैसे देती रहेंगी, तो भारत को अपनी भूमिका पर विचार करना होगा। क्या भारत IMF में अपना योगदान जारी रखे? या फिर ऐसी मदद पर शर्तें लगाई जाएं कि आतंकवाद फैलाने वाले देशों को फंडिंग न मिले?

सबसे जरूरी बात यह है कि हिंदुओं को समझना होगा कि अपनी सभ्यता की रक्षा की जिम्मेदारी उन्हीं की है। कोई वैश्विक शक्ति हिंदुओं के लिए लड़ाई नहीं लड़ेगी।

भारत को अपनी सैन्य क्षमता, हथियार निर्माण, कूटनीतिक नेटवर्क और सबसे जरूरी, अपनी आवाज़ को मजबूत करना होगा। यह लड़ाई सिर्फ सीमा पर नहीं, बल्कि विचारधारा, पहचान और अस्तित्व की लड़ाई है।

जब तक हिंदू इस लड़ाई को पहचान नहीं लेते, वे अकेले, कमजोर और गलत समझे जाते रहेंगे।

आज सबसे जरूरी सवाल यह है: क्या पाकिस्तान भारत के खिलाफ युद्ध लड़ रहा है, या हिंदुओं के खिलाफ? और अगर यह हिंदुओं के खिलाफ युद्ध है, तो क्या हिंदू अकेले इस लड़ाई को लड़ने के लिए छोड़ दिए जाएंगे?

क्योंकि इतिहास बताता है—जब कोई सभ्यता अपने दुश्मन की विचारधारा को नहीं पहचानती, तो हार सिर्फ युद्धभूमि में नहीं होती, बल्कि अस्तित्व के हर स्तर पर होती है।

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